Smita Karnatak
||डी एस बी के गलियारों से (10) “छोटू, दहीबड़े लगा”||
एम ए में हमारी पलटन बिखर गई थी. सभी के अलग अलग विषय होने से उस ‘सेना’ में केवल मैं और ममता ही बचे थे इसलिये अब हम दोनों उसके घर के पास ही मिलकर साथ जाया करते थे.
मल्लीताल से जाने वाली हम केवल चार लड़कियाँ थीं. सुबह के वक़्त मैं और ममता अयारपाटा वाली कॉलेज रोड से जाते और शाम को बड़ा बाज़ार से होते हुए वापस आते. लौटते हुए कुसुम और मौन व्रतधारी इन्द्रा भी साथ होते थे जिनमें से ए वन बेकरी के पास आकर इन्द्रा ऊपर पोस्ट ऑफ़िस वाली रोड की तरफ़ चल देती और रॉयल होटल आने पर कुसुम भी रुख़सत हो जाती. अगले आधे घंटे में मैं और ममता ख़रामा ख़रामा अपने घर पहुँचते. इस तरह स्कूल के दिनों की हम दो सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कॉलेज के आख़िरी साल तक आते आते पक्की सहेलियाँ बन गईं थीं.
हम चारों ने मिलकर तय किया था कि जब भी किसी का जन्मदिन पड़ेगा तब वो बाकी तीनों को ट्रीट देगा. बड़ा बाज़ार में ढेरों रेस्तराँ थे लेकिन हमने अपने बजट के हिसाब से एक जगह तय की जहाँ के दही बड़े हमें बहुत पसंद थे. तश्तरी में दही ऊपर तक लबालब भरा होता था. हमारा हर बार का मेन्यू तय था, इतना कि एक बार जैसे ही हम वहाँ पहुँचे कि कांउटर से आवाज़ लगी, “ छोटू, दहीबड़े लगा.” हमने एक दूसरे को कनखियों से देखा और सकुचाते मुस्कुराते हुए बैठ गये.
यहीं पर सुजाता के वार्षिक प्रेमी को मैंने आख़िरी बार देखा जो हमसे कुछ दूर कोने की टेबल पर अपने दोस्तों के साथ बैठा था. इसकी कहानी फ़्लैशबैक में यूँ शुरु होती है कि कॉलेज के पहले साल जब हम सब एकसाथ कॉलेज जाते थे तब एक दिन हमारे सामने से एक गोरा चिट्टा तक़रीबन अंग्रेज़ सा दिखाई देने वाला एक लड़का अपने जर्मन शेफर्ड कुत्ते को टहलाता हुआ आया और जैसा कि उन दिनों का चलन था उसने बेझिझक सुजाता के सामने आकर उससे दोस्ती करने की इच्छा ज़ाहिर की. बात जितने अप्रत्याशित तरीक़े से कही गई थी उसी तरह जवाब भी मिला, “नो, सॉरी.” थोड़ी देर हमने इस बात को लेकर सुजाता को छेड़ा लेकिन जल्दी ही हम इस वाकये को इसलिये भूल गये कि उसे हमने फिर उस साल नहीं देखा. उड़ती - उड़ती कहीं से ख़बर मिली कि वो शहर के एक नामी गिरामी परिवार से ताल्लुक़ रखता है.
हमें यह भी मालूम नहीं था कि वो हमारे ही कॉलेज में है या नहीं. हाँ उसका नाम हमें ज़रूर किसी ने बता दिया था. बात आई गई हो गई होती अगर ठीक एक साल बाद उसने फिर उसी कॉलेज रोड पर सुजाता से अपना प्रणय निवेदन दोहराया न होता. सुजाता भी पक्की ढीठ थी, उसने भी पहले साल की तरह दो टूक जवाब दिया. अगले ने फिर सब्र कर लिया. इसके एक साल बाद यानि कॉलेज के तीसरे साल उसने तीसरी बार एक दिन शाम को कॉलेज से वापस लौटती सुजाता से फिर बात करनी चाही, इस बार भी वही हश्र हुआ जो पिछली दो बार हो चुका था. इसके बाद मैंने उसका नाम वार्षिकोत्सव रख दिया. सुजाता के ऐसे इकतरफ़ा आशिक़ों की फ़ेहरिस्त में जुड़े उस भले से लड़के को लेकर हम सुजाता को ख़ूब चिढ़ाया करते. रफ़्ता- रफ्ता तीसरा साल भी गुज़र गया. बातों ही बातों में एक दिन मेरे मुँह से निकला, “देखना, वो तीन साल से लगातार साल में एक बार प्रपोज़ करता आ रहा है, इस बार भी करेगा,” सुनकर सब हँस पड़े.
बड़े बुजुर्ग कह गये हैं कि सोच समझकर बोलना चाहिये. चौबीस घंटे में एक बार जिह्वा पर सरस्वती विराजती हैं. मुझे क्या मालूम था कि ये बात सच हो जायेगी. कॉलेज का आख़िरी साल था और हम सीनियर होने के आत्मविश्वास से लबरेज़ थे.
रोज़मर्रा की तरह एक दिन हम कॉलेज पहुँचे. एक दो कक्षाएँ हो चुकीं थीं और तीसरी कक्षा के लिए मैम उस दिन आई नहीं थीं इसलिये हम कुछ किताबें लेने लाइब्रेरी चले गये. किताबें इश्यू कराने के बाद हम अपनी क्लास के बाहर पहुँचे ही थे कि ममता को किसी ने बुला लिया और वो उससे बात करने में व्यस्त हो गई. वापस आते हुए उसके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ उलझन भी थी. दूसरी सखियाँ भी साथ थीं. सुजाता को एक तरफ़ ले जाकर उसने कुछ कहा. हम इस पूरे घटनाक्रम से बेख़बर थे कि वहाँ क्या खिचड़ी पक रही है.
हमारी क्लास के बग़ल वाला एक छोटा कमरा उन दिनों किसी वजह से ख़ाली था. मैंने क्लास में झाँककर देखा तो ममता सुजाता के पास से उठकर बाहर आई. सुजाता अजीबोग़रीब भाव लिये बैठी थी. “इसे क्या हुआ,?” मैंने ममता से पूछा. “अरे, वो है ना,वार्षिकोत्सव ! उसने किसी से सुजाता के लिये मैसेज भिजवाया है.” मेरी हँसी छूटने को हो आई. “मतलब मेरी बात सच हो गई. इस बार खुद नहीं तो किसी और से कहलवाया ?” मैंने बमुश्किल अपनी हँसी पर क़ाबू पाते हुए कहा. “रुक, मैं इसे कहती हूँ कि हाँ कर दे, बेचारा अच्छा भला लड़का तो है. इतनी अच्छी फ़ैमिली को बिलौंग करता है.” मैंने ममता से कहा. “अरे नहीं, कुछ मत बोल अभी. बाप रे! ग़ुस्से में थरथर काँपना आज तक केवल सुना था, आज देखा कि कैसा होता है.” ममता ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे रोकते हुए कहा.
“क्यों क्या हुआ,” मैंने बेसब्री से पूछा.
“उस Annual Program ने शादी का संदेशा भिजवाया है सुजाता को. अभी विपिन मुझे यही बताने तो आया था.”
“ओह, फिर?” मेरे लिये भी बात तो गंभीर हो ही गई थी. “क्या कहा विपिन ने?”
“विपिन कह रहा था कि सुजाता हाँ कर दे तो उसका दोस्त अपने पेरेंट्स को उसके घर भेज सकता है बात करने के लिये.” ममता ने बताया.
“ओह, तो बात यहाँ तक पहुँच गई, हम तो मज़ाक़ समझे बैठे थे. पर सुजाता तो उसे जानती तक नहीं, ऐसे कैसे?” मैंने कहा.
“हाँ, यही तो मैंने भी कहा विपिन को, लेकिन वो कहने लगा कि उसका दोस्त कॉन्वेंट का पढ़ा है, इतनी रईस फ़ैमिली से है. बहुत पैसे वाले हैं वे लोग. बस ये पैसे वाली बात मैंने जैसे ही कही तो सुजाता तो बिल्कुल ही उखड़ गई और गुस्से से बोली कि उसके पैसों का उसने अचार नहीं डालना है.” ममता एक साँस में कह गई.
इस तरह एक आख़िरी बार फिर से प्रतीक्षारत प्रेमी को निराशा हाथ लगी. पिछले दिनों ये क़िस्सा लिखते हुए जब मैंने सुजाता से पूछा कि उसने क्यों उस भले लड़के का इतने लंबे इंतज़ार के बाद भी दिल तोड़ दिया तो उसका लड़कपन फिर से एक पल को वापस आ गया. तुनककर बोली, “मुझे इतने गोरे लड़के पसंद नहीं. वो बहुत गोरा था.”
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एम ए फ़ाइनल की सर्दियाँ आते आते बहुत कुछ बदल गया था. ये हमारी कॉलेज की ज़िंदगी का आख़िरी साल था. कॉलेज के साथ साथ मेरा तो शहर भी छूटने वाला था. चुनाव हो चुके थे और पढ़ाई फिर से शुरु हो चुकी थी. हम रोज़ कॉलेज जा रहे थे लेकिन हवायें दिन उड़ाये ले जा रहीं थीं. उन दिनों की एक अन्तर्मुखी लड़की साथ छूटने के ख़याल से और भी चुप हो गई थी. आने वाले दिनों के हज़ार सपनों के बावजूद कोई साफ़ तस्वीर नहीं थी. हर रोज सूरज उगता और पश्चिम दिशा में झील में अपनी परछाईं देखता हुआ चुपके से एक दिन चुरा ले जाता. कॉलेज के चार सालों में आख़िरी साल के गुज़रने की रफ़्तार मेरे लिये सबसे तेज हो गई थी.
नवम्बर अट्ठासी में कभी ममता ने अपने ब्याह की ख़बर मुझे दी. उसका कहीं रिश्ता पक्का हो गया था. मुझे अब तक याद है जब उसने कॉलेज के रास्ते में मुझे ये ख़बर सुनाई तो बजाय ख़ुश होने के मैं एकबारगी मायूस हो गई. जब उसने बताया कि शादी तो इम्तिहानों के बाद ही कभी होगी तब जाकर दिल को थोड़ी तसल्ली मिली वरना मुझे ऐसा महसूस हुआ कि उसका होने वाला पति मुझसे मेरी सहेली छीने ले जा रहा है. कहने को तो हम एक बड़े ग्रुप में थे लेकिन एम ए में आकर सभी अलग अलग विषयों के कारण बहुत कम मिल पाते थे. सभी की कक्षाओं का समय अलग था और अब कॉलेज आने जाने के हमारे समय भी बदल गये थे.
सर्दियाँ आईं, कॉलेज की कुछ दिनों की छुट्टियाँ पड़ी और मार्च में फ़ाइनल के इम्तिहान. हम जिसे आख़िरी समझ रहे थे दरअसल वो तो आने वाले अनगिनत इम्तिहानों की पहली कड़ी भर था जिसकी पढ़ाई किसी किताब में नहीं होती. उसके लिये तो ज़िंदगी को पढ़ना पड़ता है. मई में ममता का ब्याह हो गया, हमारे वायवा होने के ठीक तीसरे दिन.
रात भर उसके यहाँ आख़िरी बार फिर से सहेलियों की महफ़िल जुटी. उसके बाद सब वैसे ही बिखर गईं जैसे पतझड़ में पत्ते उड़कर कहाँ तक पहुँचे उन्हें खुद भी मालूम नहीं रहता.
उसके बाद भी बरसातें आती रहीं हैं, मौसम करवट बदलते रहे हैं लेकिन वो आख़िरी साल खूँटा गाड़कर अब तक वहीं पड़ा है. आती जाती बंजारा हवायें उसके द्वार पर अक्सर दस्तक देती हैं और वो फड़फड़ाता रहता है
— देर तक. .... ....शेष फिर