||कोरोना का संकट, प्रकृति का संकट, फसल हुई चौपट||
कोरोना संकट, ओला संकट और अब ओपी संकट इन संकटो से बाहर निकलना होगा सरकार को। ओले गिरने से किसान का भविष्य अन्धकार की ओर। यमुनाघाटी के लगभग 10 लाख किसान हुए हलकान।
आम तौर पर किसान सालभर में दो बार उचित समय का इन्तजार करते है। रवि और खरीफ की फसल का। मगर यह साल दुनियां के तमाम लोगो के जीवन में कोरोना महामारी का संकट पैदा कर गया। जबकि उत्तराखण्ड के किसानो के लिए यह संकट की घड़ी दुगुनी हो गई है। 20 मार्च के बाद मौसम ने ऐसी करबट ली कि खेतो में खड़ी फसल को ओलो ने रौंद डाला। अब यहां किसान भी खाली हाथ ही ईश्वर की तरफ सिर्फ व सिर्फ यही गुहार लगा रहे हैं कि हे ईश्वर ऐसा क्यों किया। क्या तूने प्रलय का शंख बजा दिया है।
उदाहरणस्वरूप राज्य की यमुनाघाटी नगदी फसल और खेती किसानी के लिए मानी जाती है। यही कारण है कि राज्य में यह अकेली घाटी है जहां से पलायन शून्य मात्र है। इस घाटी में आलू, मटर, सेब आदि नगदी फसल ही लोगो की जीविका के साधन है। एक अनुमान के अनुसार ओलो से नष्ट हुई फसल के कारण यमुनाघाटी की लगभग 10 लाख की जनसंख्या प्रभावित हुई है। 20 मार्च से हर तीसरे दिन यहां ओले ऐसा कहर बरपा रहे हैं कि अब यहां के किसान और उद्यानपति नगदी फसल और अन्य फसल जिसका अब कटाई का समय हो चुका था से हाथ धो बैठे है। उनकी सालभर की कमाई क्षणिकभर में नेस्तनाबूद हो गई है।
उद्याानपति भरत सिंह राणा कहते हैं कि 20 मार्च के बाद ओले कई बार गिर चुके है। ओले मात्र 20 से 30 मिनट तक गिरते है। कहा कि सेब के बागान जब फूलो से लकदक हुऐ ही थे कि ओलो ने सेब के पेड़ों के फूल ही नहीं गिराये, बल्कि पेड़ की खाल तक उतार दी है। वे आगे बताते हैं कि सेब के पेड़ को काश्तकार सालभर तक बच्चे के जैसे लालन-पालन करता है। किन्तु इस वर्ष ओले गिरने के कारण उनकी मेहनत पर पानी फिर गया है।
किसान पण्डित युद्धवीर सिंह रावत कहते हैं कि गेहूं की फसल एकदम तैयार होने पर थी, मटर की पहली तुड़वाई हो चुकी थी, तीन और तुड़वाई होनी थी, दाल और अन्य मोटे अनाज की बुआई होनी थी, धान के बीज अंकुर ले चुके थे, बस प्रकृति को यह सब रास नहीं आया और इतने बेतरतीब ढंग से ओले गिरे कि यहां सम्पूर्ण फसल चकनाचूर हो गई। 85 वर्षीय युद्धवीर सिंह आगे बताते हैं कि उन्होने अपने जीवनकाल में ऐसे खतरनाक ओले गिरते कभी नहीं देखे। बताते हैं कि मौजूदा समय में जो ओले गिरे है उनका आकार बहुत ही बड़ा था, इस कारण फसल को खतरनाक ढंग से नुकसान पंहुचा है।
बता दें कि उत्तराखण्ड में कोरोना संकट के बाद ऐसे कई और खतरनाक दृश्य सामने आ रहे हैं। एक तरफ कोरोना महामारी, एक तरफ प्रकृति की मार, एक तरफ सरकार की कार्यप्रणाली के कारण घोर संकट। जिनका सीधा असर राज्य के किसानो पर पड़ रहा है। सत्ता की लोलुपता में चकनाचूर जनता के नुमाईन्दे इन दिनों अफसरानो के घेरे में खडे़ है, जिस कारण सरकार के निर्णय जनविरोधी साबित हो रहे है। इन हुक्मरानो को यह मालूम ही नहीं कि राज्य में प्रकृति के प्रकोप के कारण किसान खाली हाथ बैठ गया है। क्योंकि वे अपने ही झगड़ों में फंसे है। यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री को ओमप्रकाश प्यार इतना चढ गया कि उन्हे राज्य की समस्या सिर्फ ओम प्रकाश जैसे अधिकारी की समस्या लगती है।
यहां सवाल लाजमी है कि यदि सरकार अपने झगड़ो से बाहर आये तो उन्हे मालूम होगा कि राज्य के छोटे-मझौले किसान ओले गिरने के कारण फसल से अब खाली हाथ बैठ गये है। भविष्य में ऐसे किसानो के पास भूखमरी का बड़ा संकट आने वाला है। इस पर राज्य सरकार तनिकभर भी नहीं सोच पा रही है। राज्य के 13 जनपदो के अधिकारियों का कहना है कि पहले कोरोना महामारी की स्थिति सामान्य हो जाये, उसके बाद वे अन्य समस्याओं पर कार्रवाई करेंगे। जबकि सरकार का दयित्व था कि ऐसे अधिकारियो को अन्य समस्या के समाधान के लिए आवश्यक कार्रवाई करने के लिए कहती। इधर ग्रामीण किसान बार-बार यही गुहार लगा रहे हैं कि ओले गिरने के कारण उनकी खड़ी फसल चैपट हो गई है। इसलिए सरकार को किसानो के लिए जरूरी व्यवस्था करने के उचित उपाय करने चाहिए।
ग्रामीण किसानो का कहना है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री यदि कुछ दिन के लिए ओमप्रकाश जैसे अधिकारी को किनारे करके सिर्फ व सिर्फ किसानो की समस्याओ पर अपना ध्यान केन्द्रीत करेंगे तो उन्हे विश्वास है कि किसानो की समस्याओ पर कोई ठोस कार्रवाई हो। संकट की इस घड़ी में किसानो को सरकार से मदद की अपेक्षा है। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड में 80 फिसदी किसान ऐसे है जिनकी जीविका खेती किसानी से चलती है। इस खेती किसानी से राज्य में पारस्परिक दियाड़ी मजदूरी से लेकर आदान-प्रदान का कारोबार चलता है। सो ओले गिरने से राज्य में जीविका के सभी साधन संकट में पड़ गये है। जिस पर राज्य सरकार की कोई चिन्ता नजर नहीं आ रही है।