||हाँ मजदूर हूँ||
हाँ मजदूर हूँ मैं।
करता हूं बहुत मेहनत,
फिर भी मजबूर हूं मैं।
ये गगनचुम्बी इमारतें तेरी,
मेरे पसीने की बूदों से सिंचित है।
जहां बैठे हो यूं बेफिक्र, वहां
मेरे ही रक्त के छीटें हैं।
हजारों तोहमतें मुझ पर,
मगर बेकसूर हूं मै।
हां मजदूर हूं मैं।।
इतना कमा लेता हूं कि,
रोज कुछ खा सकूं।
नहीं हैं ख्वाहिशें कुछ ओर,
बस यूं ही जी सकूं।
घिसे नाखून, बिखरे बाल,
खुरदुरी खाल को क्या देखोगे।
अपने बच्चों की मुस्कुराहट हूं
उनके चेहरे का नूर हूं मै।
हां मजदूर हूं मैं।।
करता हूं मेहनत जी तोड,
उतना मेहनताना नहीं होता।
तराशा जिन्दगी भर महलों को,
अपना आशियाना नहीं होता।
वक्त की इस आंधी में,
सब कैद अपने घरों में है।
दर-बदर हूं फ़कत मैं ही,
सभी से दूर हूं मैं।
हां मजदूर हूं मैं।।
नोट-यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है, कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति आवश्यक है।