रक्षासूत्र आन्दोलन के सूत्रधार - सुरेश भाई


रक्षासूत्र आन्दोलन के सूत्रधार - सुरेश भाई


समाज की बेहतरी के लिए निरन्तर कार्य करना। संवाद कायम करना। सरकार और समाज के बीच संवाद का माहौल बनाना। ऐसे कर्मवीर या व्यक्तित्व उस समाज, संस्कृति, उसके भाषा-साहित्य, व्यवहार, चरित्र एवं पर्यावरण आदि विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जी हां! हम यहां उत्तरकाशी स्थित सुरेश भाई की बात कर रहे। भले ही और भी अन्य कार्यकर्ता उनके ही जैसे कार्य करतें हो। पर उनकी कार्यशैली की सरकार हों या गैर सरकार सभी लोहा मानते है।


ज्ञात हो कि सुरेश भाई किशोर अवस्था मे ही गांधी विचार से ओत-प्रोत हो गये थे। बस यहीं से उन्होने ठान ली कि वे भविष्य में सरकारी सेवा में नहीं जायेंगे, और कूद पड़े मैदान में, जिस मैदान की जंग को हर रोज जीतना पड़ता है। ऐसी जंग जिस जंग का कोई ऐलान भी नहीं होता है। अर्थात लोक सेवा में अपनी आहूती अर्पण करना। तात्पर्य की उनकी लोक सेवा का सीधा वक्तव्य है कि इस धरा का स्वस्थ पर्यावरण ही लोगो को खुशहाली दे सकता है। ऐसा ही उन्होंने करना आरम्भ किया।


अलबत्ता जिम्मेदारियों का अहसास जितना सुरेश भाई को है, उससे अधिक किसी को हो। क्योंकि बचपन में सर से पिता का साया छूट जाना, परिवार में सबसे बडे़ होने की जिम्मेदारी आदि उनके सामाजिक कार्यो में कई बार संघर्ष को और कठिन बना देता था। मसलन वे रूके नहीं और आबाध गति से आगे चलते रहे।


एक रास्ता और उसकी गाथा


70 के दशक से और राज्य बनने तक तथा मौजूदा समय में भी सुरेश भाई बार-बार कहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनो के संरक्षण बावत जितनी भी विकास की योजनाऐं है उनमें लोक सहभागिता नगण्य है। यही वजह है कि उन्होने 90 के दशक में रक्षा सूत्र आन्दोलन का सूत्रपात किया। लगातार संघर्ष और रचना के कामो को आगे बढाया। कई बार उन्हें वनमाफियाओं की प्रताड़ना झेलनी पड़ी। मगर उनकी डगर रूकी नहीं और 1996-97 में उत्तराखण्ड वन अध्ययन जन समिति का गठन, 1998 में कब रूकेगा उत्तराखण्ड में वनो का विनाश जैसी अभूतपूर्व रिपोर्ट, साल 2000 में उत्तराखण्ड राज्य की दशा और दिशा जैसा दस्तावेज, 2003-04 में राज्य को लोक जलनीति का मसौदा, 2007-08 में उत्तराखण्ड नदी बचाओं अभियान, 2011-12 में राष्ट्रीय हिमालयी नीति अभियान को स्थापित करने का श्रेय भी सुरेश भाई को जाता है। प्राकृतिक संसाधनो के प्रति चूंकि उनके यह अभियान अलग-अलग नामो से जाने जाते हों, किन्तु सभी अभियानो की सफलता की अपनी कहानी है।


सुरेश भाई जिस तरह जी-जीन से रचना के कामो में लगे रहते है। उसके उलट वह सामान्य जीवन में भी उतने ही सहज है। इसका अन्दाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि आज भी उनके संस्थान में कोई सफाई कर्मी नहीं है। वे गांधी विचार को सिर्फ कहते नहीं हैं वरन् उसे क्रियान्यवन भी करते है। संस्थान में साफ-सफाई के कामों को खुद सम्पन्न करते हैं। वे मानते हैं कि जब से हम लोगो ने खुद की सफाई का जिम्मा किसी और नागरिक पर निर्भर कर दिया तब से लोगो की कार्यशैली में बिकार आने लग गये हैं। कहते हैं कि गांधी भी अपने आश्रम में स्वच्छता का काम स्वयं करते थे। इसलिए जब स्वच्छता के कामों में सामूहिकता आयेगी समता भी तभी आयेगी। साथ ही लोगो में प्रकृति व संस्कृति की भावना भी जागृत रहेगी।



प्रवाहमयी पथ प्रदर्शन
80 के दशक आते आते सुरेश भाई का समर्पण प्राकृतिक संसाधनो के प्रति हो चुका था। 10 वर्ष तक जल, जंगल, जमीन के रचनात्मक विषय पर लोक जीवन विकास भारती के साथ काम करना प्रारम्भ किया। वर्ष 1984-90 तक सुरेश भाई ने जल संरक्षण एवं वन संरक्षण के लिये टिहरी, उत्तरकाशी के लगभग 1000 गांवों मंे पदयात्रा की। अब सुरेश भाई का सम्पर्क 400 ग्रामीण महिला संगठनों से सीधा हो गया था।


सन् 1990-93 के दौरान सुरेश भाई उत्तराखण्ड की प्रसिद्व समाज सेविका सुश्री राधा बहन, पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट, सुन्दरलाल बहुगुणा, भवानी भाई जैसे नामी सर्वोदय कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आये। इन विद्धत समाजसेवियों का परामर्श था कि वह टिहरी बांध के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय संकट के विषय को लेकर टिहरी बांध के जल ग्रहण क्षेत्र पर अध्ययन करें। अर्थात उन्होंने यहां चार बार कुल 500 किमी की पद्यात्रा की। यही वजह रही कि तत्काल पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा के टिहरी बांध विरोध के उपवास के दौरान उन्हे साथियों केे साथ दो बार पुलिस हिरासत में रहना पड़ा।



1983 में चिपको के साथ हुए करार को साल 1993 में जब सरकार ने पलट दिया और 1000 मीटर से ऊपर के वनों का व्यावसायिक दोहन होने लगा, ऐसे में सुरेश भाई बहुत ही विचलित हुए। उन्होंने टिहरी जिले की धर्म गंगा, बाल गंगा, भिलंगना, उत्तरकाशी जिले में भागीरथी, चमोली जिले में अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्रों में गहन अध्ययन आरम्भ किया। वन विनाश की सच्चाई को जानने के लिए वे सैकड़ों गांवों की महिलाओं से मिले। जो तत्काल रोजमर्रा अपने घास, लकड़ी के वनों को बचाने के लिये संघर्षरत थी। किन्तु यह दौर उत्तराखण्ड के लिए बहुत ही संक्रमणकाल का रहा है। अब  1994 में एक तरफ पृथक उत्तराखण्ड राज्य की माँग चरम सीमा पर थी तो वहीं वनमाफिया वनों के दोहन के लिए कमर कस चुके थे। ऐेसे दौर मंेे सुरेश भाई एवं उनकी पर्यावरण टीम के दर्जनों साथियों ने मिलकर वनों के व्यावसायिक दोहन रोकने के लिये पेड़ों पर महिला संगठनों के साथ मिलकर रक्षासूत्र (राखी) बाँधे है। रक्षासूत्र आन्दोलन के बाद हर्षिल, चैंरगीखाल, बूढाकेदार, रायाला, भिलंग, मुखेम, अयांरखाल आदि कई वन विविधता वाले स्थानों पर लगभग 12 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र के अन्तर्गत लाखों हरे पेड़ों का कटान रोका गया। कह सकते हैं कि चिपको के बाद वनों को बचाने का यह दूसरा भावनात्मक आन्दोलन था। रक्षासूत्र आन्दोलन की पर्यावरण टीम ने ‘‘उत्तराखण्ड वन अध्ययन जन समिति’’ का गठन करके उन स्थानों का अध्ययन किया है जहाँ-जहाँ पर वन निगम ने वनों का व्यावसायिक दोहन किया था। ‘‘कब रूकेगा उत्तराखण्ड में वनो का विनाश’’ नाम से यह रिपोर्ट पुस्तिका के रुप में सामने आई। जिसका संज्ञान तत्काल भारत सरकार के पर्यावरण मन्त्रालय ने लिया और लगभग 120 वनकर्मियों को निलम्बित होना पड़ा।


14 मार्च सन् 1994 में रक्षासूत्र आन्दोलन के दौरान लोक शिक्षण एवं रचनात्मक कार्यों के लिये ‘‘हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान’’ की स्थापना की गई। जो वन संरक्षण व जल संरक्षण के लिये एक चीर-परिचीत संस्था मानी जाती है। वर्तमान में संस्था का कार्यालय उत्तरकाशी के मातली गाँव में स्थित है।


वैचारिक और नीतिगत पहल 
10-11 सितम्बर 1994 को रयाला जंगल में छापे गये हजारों पेड़ों का व्यावसायिक दोहन रोकने के लिये डालगांव, खवाड़ा, भेटी आदि की महिलाओं ने पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे। 5 जुलाई 1995 को वन निगम के मजदूर पुनः रयाला जंगल में चोरी-छिपे पंहुचे, परन्तु रक्षासूत्र की पर्यावरण टीम वहां मौजूद थी, तो मजदूरों को बैरंग लौटना पड़ा। 9-13 अगस्त 1995 को जब रयाला जंगल में डालगांव, खवाड़ा की लगभग 200 महिलाओं ने जाकर रक्षासूत्र बाँधे तो वन काटने वाले मजदूरों को जंगल से भागना पड़ा। उधर 17 दिसम्बर 1995 को उत्तरकाशी के चैंदियाट गाँव और दिखोली की महिलाओं ने चैरंगीखाल में ढो़ल बाजों के साथ पेड़ों पर रक्षासूत्र बाँधे। इसके बाद चैरंगीखाल से वन कटान करने वाले मजदूरों को उल्टे पाँव भागना पड़ा।


04-06 जनवरी 1996 को रक्षासूत्र आंदोलन से जुड़ी महिलाओं के साथ मिलकर सुरेश भाई ने वन संरक्षण के लिये जल एकत्रीकरण जैसे चाल (ॅंजमत भ्ंतअमंेजपदह ैजतनबजनतम) आदि के निर्माण पर शिविर एवं 200 किमी की पदयात्रा की। 01 मार्च 1996 को वन माफियाओं से मुक्ति पाने के लिये लम्बगांव में ढोल बाजों के साथ सैकड़ो महिलाओं ने सुरेश भाई के साथ अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। परिणाम स्वरूप 08 मार्च 1996 को पहली बार धौन्तरी में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को वन बचाओ दिवस के रुप में मनाया गया। नतिजन 13 मई 1996 को चैरंगीखाल के आगे हरुन्ता में वन कटान के अध्ययन दल का नेतृत्व कर रहे सुरेश भाई और उनके टीम के सक्रिय सदस्य किशोरी लाल भट्ट पर वन माफियाओं ने जानलेवा हमला कर दिया। किसी तरह वे वन माफियाओं के चुंगल से बचकर वन महानिरीक्षक दिल्ली (वन एवं पर्यावरण मंत्रालय) से जा मिले और वन विनाश की जांच के आदेश करवाये। 


यह कारवां आगे बढा और 9 अगस्त 1996 को उत्तराखण्ड हिमालय में वन विनाश को रोकने के लिये देश की ग्यारवीं लोकसभा के संसद सदस्यों के नाम खुला पत्र जारी किया गया। यह तारतम्य जारी रहा और सन् 2000 में ‘‘उत्तराखण्ड विकास की सही दशा-दिशा का दस्तावेज’’ तैयार हुआ जिसे तत्कालीन अन्तरिम सरकार को सौपा गया। 2003 में राज्य सरकार ने जलनीति का एक मसौदा सामने लाया, जो बड़ा निराश करने वाला था। इसको ध्यान में रखते हुये 16,17,18 जून 2004 केा देहरादून मे सुरेश भाई के नेतृत्व में एक राज्य स्तरीय सम्मलेन किया गया, जिसमें लोक जलनीति का मसौदा तैयार हुआ है। इस मसौदे को जब मुख्यमंत्री को सौंपने 30 सितम्बर 2004 को हजारो लोग राजधानी में एकत्रित हुए तो सुरेश भाई सहित 400 लोगों को पुलिस हिरासत में रहना पड़ा। अन्ततः मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को लोक जलनीति का मसौदा सौंपा गया। उन्होंने राज्य की जलनीति बनाने के लिये इसको आधार बनाया और इसको लागू करने के लिये मन्त्रिस्तरीय समिति का गठन भी करवाया। इसके बाद लोक जलनीति के इस मसौदे को 1000 पंचायतों ने भी अपने स्तर से सरकार को भेजा।
 
वर्ष 2007 नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में भागीरथी पर निर्माणाधीन पाला-मनेरी (420 मेगावाट) जल विद्युत परियोजना के नाम पर हरे पेड़ों की कटाई रोकने के लिये गंगोत्री के पास पाला गांव की महिलाओं ने रक्षासूत्र बांधे। इसके बाद हरे पेड़ों का कटान रोका गया। कह सकते हैं कि रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रतिफल लोक जल नीति, नदि बचााओ अभियान, हिमालय लोक नीति अभियान और हिमालय दिवस एवं नदि बचााओं दिवस जैसे परिणाम आज हमारे सामने हैं।



क्या कहते हैं कि सुरेश भाई
रक्षासूत्र एक भावनात्मक अभियान है। जो लगातार पाच दशक से शिक्षा, पर्यावरण और विकास जैसे मुद्दों को लेकर जनता के मध्य प्रयासरत हैं। गांव में ‘‘जल और वन’’ के परम्परागत विकास और संरक्षण की सोच पर काम करने वाली सोच पैदा करता है यह आन्दोलन। चिपको जैसे विख्यात आन्दोलन के बाद भी वनो के अधाधुन्ध कटान के खिलाफ लम्बे समय से यह अभियान जारी है। इसलिए टिहरी व उत्तरकाशी के सूदूरवर्ती गांवों की महिलाओं ने नारा दिया है कि ‘‘ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे, नदि गलेशियर टिके रहेंगे, पेड़ कटेंगे, पहाड़ टूटेंगे, बिना मौत के लोग मरेंगे, जंगल बचेगा, देश बचेगा, गांव-गांव खुशहाल रहेगा’’। उन्हे इस बात की चिन्ता है कि वनों का व्यवसायिक दोहन बहुत ही खतरनाक है। इसलिए उन्होंने हिमालय राष्ट्रीय नीति अभियान को 11 अक्टूबर 2014 को जय प्रकाश नारायण की जयंती पर गंगोत्री से प्रांरभ किया। जो 18 फरवरी 2015 को गंगा सागर में पूरा हुआ। कहते हैं कि देश में गंगा की अविरलता, निर्मलता के साथ हिमालय नीति की माँग उठनी आज की आवश्यकता है।


सुरेश भाई का मानना है कि उत्तराखण्ड में वन विकास निगम जैसी व्यवस्था को समाप्त कर यहां के ग्रामीणो को पूर्ण रूप से वनों पर अधिकार सौंपा जाना चाहिए इससे जन मानस में वनों के प्रति अपनत्व की भावना जागृत होगी। वन संरक्षण के साथ-साथ राज्य सरकार को जल संरक्षण की पारम्परिक व्यवस्था की बहाली योजनागत रूप से करनी होगी।