मूर्धन्य साहित्यकार श्री सोमवारी उनियाल जी की कविता "अपराध बोध" को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री उनियाल साहित्यकार ही नहीं वे राज्य आन्दोलनकारी, समाजसेवी और राजनीतिज्ञ भी है।
◆अपराध बोध◆
बचपन में जब माँखाना खिलाने के बहानेज़बरदस्ती पकड़ती तोमैं हाथ छुड़ा करभाग जाता उस रास्ते परजहाँ खड़ा होता एक अखरोट का पेड़रास्ते को फांदतीउसकी एक मोटी टहनी परहम मस्ती सेझूला झूलतेनहाना धोनाखाना पीना भूलकरउसकी घनी छाव मेंहम खेलते कूदते औरऊँची टहनियों परघेंडूड़ी, सेंटुली, घुघुती औरकई रंग-बिरंगी चिड़ियांबारी बारी से आतीफुदकती चहचहाती औरफुर्र होजातींतब शायद बंदरों कोपता नही था अखरोट का स्वादउनका ध्यान कोदे-झंगोरेकाखड़ी-मुंगरीऔर दूसरे फलों पर होताउम्र के साथ साथ बढ़ता गयापेड़ का फैलावऔर इधरज़िन्दगी के कई दबावपढ़ाई लिखाई औरघर गृहस्थि के दंद फंद में फंसकरहम चले आए शहरपेड़ को गाँव में अकेला छोड़ करफिर भी उसने अपनीफल दाई उदारता नही छोड़ीकरता रहा पीढ़ियों सेजिसका निर्वाह वहहमारे सगे संबंधियों को भीबंट जाती उसकीस्नेह पूर्ण सौगातसमय के साथ साथखेत होते गए बंजरअखरोट की लंबी टहनियांपहुँच गयी हमारी छत परजंगलों को छोड़ करबस्ती में आ गए बंदरअखरोट बन गया उनकापसंदीदा भोजनबंदर भगाने कोलोग फेंकते पत्थरआ गिरते जो हमारी छत परगहराता रहा द्वंद्वमकान बचाएं या अखरोट!घर में हुआ विमर्शपड़ोसियों ने दिया परामर्शबहुमत ने तय किया"पेड़ की ऊंची टहनियाँ काट दी जाए"बंदर बैठ न पाएं जिससे उस परमेरा वोट विरोध में थापर बहुमत की चलीदाल उसी की गलीटहनियां कट गईसमस्या हट गई
पेड़ ठूंठ सा दिखने लगाजैसे किसी बुजुर्ग का सायाअचानक सिर से उठ गयासूखा नही अभीकटे अंगो परफूंट जाती कलियाँहरिया जाते छितराये पत्तेजैसे अतीत की स्मृतियाँपर एक अपराध बोध की चुभन महसूसता हूँअब भी कई बार अपने भीतर.……