उत्तराखंड में दलितो की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति
यह देश का 11वां हिमालयी राज्य है जिसकी लम्बाई पूर्व से पश्चिम की ओर 358 किमी॰ और चैड़ाई उत्तर से दक्षिण की ओर 320 किमी॰ क्षेत्रफल में फैला है। राज्य में वनो का कुल क्षेत्रफल 34.651 वर्ग किमी॰ है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल जनसंख्या 1,01,16,752 है जबकि राज्य में 15596 आबाद ग्राम है तथा 1065 गैर आबाद ग्राम है इसके अलावा आबाद वन ग्रामो की संख्या 165 है तो गैर आबाद वन ग्रामों की संख्या भी 182 है। यह राज्य पूर्व में नेपाल और उत्तर मे चीन एवं तिब्बत की अंतराष्ट्रीय सीमा से लगा है।
उत्तराखंड में दलित जनसंख्या -
एक अनुमान के अनुसार कुल जनसंख्या के सापेक्ष राज्य मेें दलितो की जनसंख्या 22 प्रतिषत बताई जाती है। यदि राजनैतिक व प्रशासनिक दृष्टि से भी देखें तो कुल 70 विधानसभाओं में से 13 विधान सभाऐं ( गंगोलीहाट, बागेश्वर, सोमेश्वर, नैनीताल, थराली, पौड़ी, घनसाली, पुरोला, भगवानपुर, ज्वालापुर, झवरेड़ा, राजपुर, बाजपुर) अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गयी है और 02 विधान सभाऐं (चकराता, नानकमत्ता) अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। इस तरह राज्य की कुल आबादी में से लगभग 22 लाख की जनसंख्या दलित बाहुल्य मानी जाती है। राज्य में सबसे ज्यादा दलित बाहुल्य क्षेत्र उत्तरकाशी, पौड़ी अल्मोड़ा व हरिद्वार जनपदो में है।
दलितो में जातीय स्थिति एवं उनका रहन-सहन -
राज्य में दलितो में ही बहुत सब जातियां है जिसमें ढोली-बाजगी, बढई, लोहार, सुनार-टम्टा, कोली, डोम-चमार, नाई, दर्जी, आदि प्रमुख है तथा हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंह नगर जैसे तराई क्षेत्रो में बाल्मीकी समुदाय के लोग भी निवास करते है। जिनकी स्थिति निम्न प्रकार है
सुनार-टम्टा -
इस समुदाय की जनसंख्या लगभग 02 प्रतिशत है इसी समुदाय के पास ही थोड़ी-बहुत भूमि है इन्ही में से सर्वाधिक लोग सरकारी सेवा में है। इनका सोने-चांदी के जेहवरात बनाने का व्यवसाय है।
ढोली-बाजगी,बाल्मीकी -
यह समुदाय सबसे ज्यादा गरीब, षोशित, पीड़ित है और भूमिहीन भी है। इनका व्यवसाय ढोल बजाना सफाईकर्मी के सिवाय और नहीं है। अर्थात निम्न किस्म का रोजगार है।
डोम-चमार -
इस जाति की जनसंख्या राज्य में सबसे अधिक है। यह समुदाय मजदूरी, बंधुवामजदूरी, या दूसरो की जमीन पर बटाई में कार्य करना है। इसके बाद ढोली-बाजगी, बाल्मीकी समुदाय के लोगो की जनसंख्या बताई जाती है। इस तरह अन्य जातियों का जनसंख्या का प्रतिषत है।
दलितो की भूमि व आर्थिक स्थिति -
राज्य में दलितो के पास नाम मात्र की भूमी है जिससे उनका साल के दो माह का भी गुजारा नही चल सकता है यानि कि आंकड़ो के मुताबिक 01 या 02 नाली (नाली का मतलब एक नाली खेत से एक कुन्तल की उपज) प्रति परिवार के पास बताई जाती है। जो सरकारी पदो पर हैं उन्होने यदा-कदा भूमी की खरीद-फरोख्त की है तो भी दलितो की भूमी की स्थिति नगण्य ही मानी जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक राज्य में ढोली और बाल्मीकी समुदाय के 01 लाख परिवार ऐसे हैं। जो एकदम भूमिहीन है इनका रोजगार सिर्फ ढोल बजाने से या सफाईकर्मी के रूप मे ही चलता है। इनके आवासीय भवन तक सामुदायिक/सार्वजनिक स्थलो पर हैं। जहां से उन्हे कभी भी हटाया जा सकता है।
राजनैतिक पंहुच -
कहने को यहां 13 दलित विधायक र्निवाचित होकर आते है परन्तु इन्होने कभी भी स्पेषल कम्पोनेट प्लान (सिर्फ अनुसूचित जाति के लिए योजना) का पैसा सरकार से 100 प्रतिशत खर्च नहीं करवा पाया है। नतिजा यह है कि इन्होने कभी भी विधान सभा के अन्दर और बाहर दलितो के मुद्दो पर कहने की जहमत तक नही उठाई है। उनका कहना है कि यदि वे दलित मुद्दो पर सक्रीय हुए तो वे दुबारा चुनाव नहीं जीत पायेंगे इसलिए वे पांच वर्श तक चुप्पी साधने में ही अपना भला समझते हैं। दलित राजनेता राज्य बनने के पश्चात् से ही कभी भी सत्ता में निर्णायक की भूमिका में नहीं रहा है। यहां तक कि सभी राजनितिक पार्टिया दलित नेताओ को जाति व आरक्षण के रूप में ही इस्तेमाल करते हैं। यदि कोई दलित राजनेता दलित हित के लिए नजर आयेगा तो उसे कोई भी पार्टी पद से लेकर सभी गतिविधियों से हटा देती है। इसके कई उदाहरण राज्य में मौजूद है। पहला उदाहरण सभी पार्टीयों की रणनीति में देखने में आया है कि वे टिकट सिर्फ उसे देते हैं जो जातिवाद को सहज ही स्वीकार करता हो। दूसरा उदाहरण धनोल्टी आरक्षित विधानसभा का है। यह विधानसभा 2008 के परिसीमन के बाद आॅपन हो गयी। इसी विधान सभा से दलित विधायक जो पिछली सरकार में कैबनेट मन्त्री थे को पुनः इसी विधान सभा से भाजपा ने चुनाव इसलिए नहीं लड़ने दिया कि अब यह विधानसभा ऑपन हो चुकी है। उनका यहां से चुनाव लड़ने का कोई अधिकार नहीं है।
भेद-भाव -
इस राज्य में भेद-भाव और जातिवाद सौ फीसदी है लेकिन तरिका मैत्री पूर्ण रहता है। जैसे जौनसार जनजाति क्षेत्र में सभी विभागो को मैत्री पूर्वक बताया गया कि इस क्षेत्र के दलित समुदाय के लोगो के जाति प्रमाण पत्र सिर्फ अनुसूचित जाति के ही बनवाये जाये। यही वजह है कि चकराता विधान सभा से अब तक किसी भी दलित नेता ने चुनाव नहीं लड़ पाया है। क्योंकि वहां के अधिकांष दलितो के पास जनजाति का नहीं वरन् अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र है। इसी तरह राज्य के गांवों में आज भी पेयजल के प्राकृतिक स्रोत दलित व नाॅन दलितो के अलग-अलग है। राज्य में 16 हजार ऐसे मंदिर है जहां आज भी दलितो का प्रवेष वर्जित है। स्पेशल कम्पोनेट प्लान का एक भी कार्य दलित हित में सामने नही आया है। दलित उत्पीड़न के मामले में एफआईआर तक नहीं लिखी जाती और ना ही उनके मुकदमो बाबत कोई कम्पलषेशन मिलता है। यदि किसी मुकदमें में किसी को कम्लषेशन मिला भी होगा तो वह अपवाद ही माना जायेगा। राज्य के गांवो से जो युवतियां वैष्यालयो में है वह भी 100 प्रतिषत दलित समुदाय से ही है। इनके पीछे राजनीतिक निहीतार्थ भी सामने आता है। ऐसे मुद्दो की पैरवी करने पर कार्यकर्ता को नाॅन दलित से ही उलझना पड़ता है।
अन्य -
राज्य में जितने भी सांस्कृतिक दल/संस्थाऐं हैं उनमें से 95 प्रतिशत दल/संस्था दलित कार्यकर्ताओं की है उन्हे भी राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है ऐसी संस्थाओ से जुड़े सदस्यो का ना तो कभी क्षमता विकास की योजना बनती है और ना ही उनके कार्यक्रम को गुणवत्ता आधारित बनाने के लिए कोई पैकेज, शिक्षण-प्रशिक्षण की सरकार व्यवस्था करती है। उन्हे सिर्फ स्टेजो तक नाचने के लिए विवष किया जाता है। यदि सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओ का भविश्य में क्षमता विकास होगा तो वे अपने अधिकारो के प्रति सजग होगे। इस लिहाज से सरकार में बैठे नुमायन्दे उनका इस्तेमाल एक विज्ञापन के रूप में कर रहे है। ऐसे सांस्कृतिक संस्थाओ से जुड़े सदस्यो की संख्या 2440 है। जो सिर्फ सांस्कृतिक कार्यक्रमो तक ही सीमित है उनका मानदेय इतना कम है कि वे पाई-पाई के लिए मोहताज रहते हैं। ये सभी सदस्य दलित समुदाय से ही आते हैं।