स्वयं में बदलाव

स्वयं में बदलाव


हेमा रावत


मैं पारिवारिक और सामाजिक कारणों से हाईस्कूल के बाद शिक्षा नहीं ले पायी लेकिन कुछ विशेष करने की चाहत लगातार बनी रही। मुझे घर से बाहर जाने व लोगों से बातचीत करने में बहुत डर लगता था । अपरिचितों को देखकर घर के भीतर छिप जाती थी। जब मैंने हाईस्कूल उत्तीर्ण किया तो उस वक्त हमारे गाँव में सीड संस्था के माध्यम से बालवाड़ी चल रही थी। बालवाड़ी शिक्षिका शान्ती दीदी की शादी तय हो गयी।  वह गोष्ठियों में भाग लेने आसपास के गाँवों में जाती थी और महिलाओं की बैठकें भी संचालित करती थी। मैं उस वक्त सोचती थी कि काश यह सब कर पाती, लेकिन मुझे बहुत संकोच होता था।


शान्ति की शादी तय हो जाने की वजह से नयी शिक्षिका की तलाश हो रही थी। गाँव में अधिकतर लड़कियाँ कक्षा आठ तक पढ़ी थीं। जो ज्यादा पढ़ी-लिखी थीं उनकी शादियाँ हो रही थीं। शान्ती दीदी ने मुझसे बालवाड़ी चलाने को कहा, लेकिन मैं साहस नहीं जुटा पा रही थीउनके प्रोत्साहन से एक दिन केन्द्र में गयी वह मुझे केन्द्र के बारे में बता रही थी कि इतने में बालवाड़ी की मार्गदर्शिका भगवती दीदी वहाँ आ गयी। उसे आते देख मैं डर कर भागी और घर वापस चली गयी। 


दूसरे दिन शान्ती दीदी ने मुझे पुनः समझाया कि बालवाड़ी में हिम्मत के साथ आना है, किसी से डरने की जरूरत नहीं है। उन्होंने अनेक महिलाओं के उदाहरण दिये कि वे साहस के साथ आगे बढ़ी हैंमहिला संगठन ने भी मुझे शिक्षिका के रूप में चुन लिया। मैंने बड़ी हिम्मत करके बालवाड़ी चलानी प्रारम्भ की।


एक दिन मैं सुनाड़ी, सीड संस्था की बैठक में भाग लेने गयी। वहाँ मुझे कई अन्य लड़कियाँ मिली जो जान-पहचान की ही थीं। वे सभी बालवाड़ी चला रही थीं। बोलने में झिझकती नहीं थी। वहाँ हमें संस्था सचिव काण्डपाल जी ने कार्यक्रम के बारे में समझाया। उसके बाद मुझे दस दिन के लिए अल्मोड़ा प्रशिक्षण में भेज दिया।


मैं पहली बार घर से बाहर निकलकर उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा में पहुंची। वहाँ हमें ऐसी शिक्षा मिली जो विद्यालय की पढ़ाई से बिल्कल अलग थी। वहाँ गाँव की साधारण शिक्षिकाओं को देखने के बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा। प्रशिक्षण के उपरान्त बालवाड़ी शिक्षिका का काम करने के दो-चार महीने बाद ही मेरा डर व झिझक गायब हो गयी मैं सबके सामने बेझिझक होकर अपनी बातें कहने लगीकेन्द्र चलाने से मुझे महिला जागरूकता व सही गलत की बातें समझ में आने लगी। कई महिला सम्मेलनों, गोष्ठियों व कार्यशालाओं में भागीदारी के अलावा मैंने लगभग छ: वर्ष तक बालवाड़ी चलायी। इस तरह मेरा उत्साह बढ़ता गया। महिलाओं से गाँव की समस्याओं पर चर्चा व चिंतन करने की क्षमता बढ़ गयी।


उसके बाद मेरी शादी ग्राम सुरना में हो गयी। गाँव में खूब पानी उपलब्ध था इसलिए खेती भी अच्छी होती थी। सुरना गाँव में महिला संगठन नहीं बना था। ना ही महिलायें सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों पर बोलती थी। वे दिन-रात खेती के कार्य में जुटी रहती थीं। सम्पन्न गाँव होने के बावजूद महिलायें एकजुट होकर गाँव के विकास के मुद्दों पर चर्चा नहीं करती थीमैं जब वहाँ गयी तो महिलाओं की दशा पर बड़ी चिन्ता हुई जंगल ऊँची पहाड़ियों पर है इसलिए घास-लकड़ी लेने जाते वक्त महिलायें परेशान रहती थींमैंने घास-लकड़ी इकट्ठा करते हुए और खेतों में कार्य करते समय अपने मायके के संगठन व सीड संस्था के बारे में बताया। कुछ महिलाओं की समझ में आया। पुरूष प्रधान गाँव होने के कारण महिलायें स्वतः निर्णय नहीं ले सकती थी। इसलिए कुछ 45 पुरूषों से भी चर्चा की। काफी चर्चा के बाद महिलाओं को बिन्ता व जालली में आयोजित महिला सम्मेलनों में ले गयी। इन सम्मेलनों से उनमें काफी प्रभाव पड़ा। वहाँ महिलाओं के विचारों व अनुभवों को सुनने के बाद उन्होंने भी गाँव में संगठन बनाने की बात कही। 


 मैंने सीड संस्था की मार्गदर्शिका श्रीमती माया जोशी को बुलाकर अप्रैल 2014 में महिला संगठन का पुनः गठन किया। अब हम सुरना गाँव में हर माह गोष्ठी करते हैं। महिलायें अपने आस-पास की घटनाओं पर चर्चा करती हैं। सामुहिक कार्यों में भाग लेती हैं। अल्मोड़ा गोष्ठियों में भाग लेने जाती हैंपहले जंगल में कच्ची लकड़ी काटने पर रोक नहीं थीं। अन्य गाँवों की महिलायें भी जंगलों से कच्ची लकड़ी काटकर ले जाती थी। एक दिन उन्हें रोकने के लिए हमने घेरा डाला और कहा कि यदि वे कच्ची लकड़ी काटेंगी तो हम शिकायत कर देंगे। तब बैठक में चर्चा के बाद तय हुआ कि कोई कच्ची लकड़ियाँ नहीं काटेगा। तब से ग्रामवासी कच्ची लकड़ियाँ नहीं काटते।


 अब महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ रहा है। इस वर्ष संस्था द्वारा हमारे गाँव में ग्राम शिक्षण केन्द्र खोला गया है। महिलाओं ने बहुत विचार-विमर्श के बाद शिक्षिका हेतु शान्ती देवी का चयन किया है इस केन्द्र की पुस्तकों का लाभ गाँव के सभी लोग ले रहे हैं। केन्द्र में तीस बच्चे आते हैंअब ग्रामवासियों का “साथ-साथ चलो” का सोच मजबूत हो रहा है।