स्वयं को बदलो तभी समाज बदलेगा
लीला बिष्ट
अगर समाज में भेदभाव है, तो हम सभी को मिलकर उसे बदलना चाहिये । हमें खुद को भी बदलना चाहिये हम संस्था के माध्यम से भेदभाव पूर्ण रीती-रिवाजों को बदलना चाहते हैं। जैसे-आज भी स्त्री-पुरूष के बीच काफी सामाजिक, आर्थिक असमानताएं है। यदि किसी परिवार में चार–पाँच लडकियाँ पैदा हो जाती हैं तो भी लड़के के लिये इंतजार करते रहते है। इस जमाने में क्या लड़का, क्या लड़की? सभी एक समान हैं। दूसरी बात यह कि किसी विधुर की शादी अनेक बार हो सकती है। विधवा स्त्रियों पर दूसरी शादी के लिये कठोर बन्धन होता है। हमें इस मान्यता को भी बदलना है। औरतों को अपने आप को कम नहीं समझना चाहिये। दलितों से भेदभाव की भावना बदलने की अत्यंत आवश्यकता है। समाज में सब एक हैं। उन्हें अलग नहीं समझना चाहियेअक्सर गोष्ठियों के बीच में जब चाय परोसी जाती है तो कुछ लोग अलग से जाकर बैठ जाते हैं। चाय पीते वक्त अन्य लोगों से एक दूरी बना लेते हैं। इस स्थिति को देखकर मुझे बहुत ठेस पहुँचती है। इसे बदलना भी एक चुनौती है। साथ बैठ कर चाय-पानी अथवा भोजन का सेवन करने से कोई छोटा-बड़ा नहीं हो जाता। मनुष्य कर्मो से बड़ा बनता है, अच्छी सोच से बदलता है।कन्या भ्रूण हत्या पर विचार करना जरूरी है। अगर भ्रूण हत्या रूक जायेगी तो भेदभाव भी मिटेगा अगर कन्या को कोख में खत्म कर देंगे तो लड़कियों की संख्या स्वतः ही कम हो जायेगी। हम संस्था के कार्यकर्ता समाज में स्त्रियों के महत्व को समझाते हैं समाज इस समस्या को समझ नहीं पा रहा है। कोख में ही लड़की को मार रहे हैं, लड़कों को जन्म दे रहे हैं। हमें मिलकर इस सामाजिक बुराई को मिटाना हैजब भेदभाव मिटेगा तब हम बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं। दिल में ललक है। सफलता का प्रतीक यही होगा कि हमारे क्षेत्र में कोई भी भ्रूण-हत्या ना हो । हमारी मेहनत तभी कारगर होगी, जब किसी भी गाँव में ऐसे लोग नहीं होंगे जो कन्या भ्रूण को मारें बेटा-बेटी के अनुपात में संतुलन से ही समाज संतुलित रह सकता है, बदल सकता है, बच सकता है । जब समाज के बीच में ठोस रूप से काम होगा तो अच्छे परिणाम भी मिलेंगे।