जीवनदायिनी गंगा

||जीवनदायिनी गंगा||


गंगा हमारी भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासत ही नहीं, धार्मिक और आध्यात्मिक धरोहर भी है। यह जीवनदायिनी और पतितपावनी होने के साथ-साथ त्रिभुवन तारिणी भी है, इसलिए लोकमानस में यह पावन देव सरिता स्वरूपा माँ गंगा रूप में मानव मन-मस्तिष्क में विराजमान है। जब सागर की अतुल गहराई में हिमालय का बीजारोपण भी नहीं हुआ था, यह तब से अनवरत प्रवाहमान है और अनादिकाल से लोक जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति को भी पल्लवित-पुष्पित करती आई है।


इसका निर्मल अमृतमय जल जड़ी-बूटियों के अर्क से पुष्ट और अविनाशी है, मोक्षदायी है। पुराणों में इसके अनेक महिमा गान हैं -


देवि सुरेश्वरी भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे।


भीष्मजननि हे मुनिवर कन्ये, पतित निवारिणी त्रिभुवन धन्ये।।


हे देवी भगवती गंगे! तुम देवगण ईश्वरी हो। तरल, तरंगमयी, त्रिभुवन तारने वाली हो। हे भीष्म जननी, जान्हु ऋषि कन्या पतित पावनी होने के कारण तुम त्रिभुवन में धन्य हो।


पुराणों में गंगा को ब्रह्मा के कमंडल से निकलकर, विष्णु के चरण पद पखारती, शिव की जटाओं से झर-झर निकली पावन नदी बताया गया है। भगीरथ के घोर तप से यह पृथ्वी पर अवतरित हुई, इसलिए भागीरथी कहलायी। पर इसे यह विश्व प्रसिद्ध नाम गंगा पंच प्रयागों में श्रेष्ठ देवप्रयाग में मिलता है। यहां भवतारिणी भागीरथी और पुण्यदायिनी अलकनन्दा का संगम होता है। मान्यता है कि स्वर्ग से अवतरित होकर गंगा कई धाराओं में बँट गयीबाद में यही धाराएं विभिन्न स्थलों में एकत्र होकर फिर गंगा बन गयी।


स्कन्द पुराण में जिस 'सप्त सामुद्रिक तीर्थ' का उल्लेख आता है, वह गंगा ही है। जिन सात नदियों के समागम से यह पावन गंगा बनी वे हैं- विष्णु गंगा (अलकनन्दा), भागीरथी, मन्दाकिनी, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिंडर एवं नयार। 'आर्य' संस्कृति की यही पावन गंगा मूलाधार रही है।


गंगा का महात्म्य : जो कभी न रुके, निरंतर गतिमान हो, वह गंगा है (गंगा गमनाद्-यास्क)पवित्रता और लोक-कल्याण का अतुलनीय प्रतीक। साथ ही आध्यात्मिक शक्ति का वह पुंज, जो हमें भगवत् पद तक ले जाता है। उसके दर्शन कराता है और अंतत: मोक्ष भी दिलाता है।


गमयति, प्रापयति, ज्ञापयति वा भगवत् पदं या शक्तिः सा गंगा।


'गम्' धातु व 'ग' वर्ण से उपजे 'गंगा' शब्द के स्मरण मात्र से ही मोक्ष मिल जाता है। यही नहीं उपमा रूप में यह शब्द जिससे भी जुड़ जाता है, वह भी गंगा की तरह पावन और कल्याणकारी हो जाता है'भक्ति-गंगा', 'स्वर-गंगा' एवं स्पर्श-गंगा के पीछे यही भावना है।


केदार गंगा, विष्णु गंगा, गरुड़ गंगा, जाड़ गंगा, असी गंगा, विरही गंगा, रुद्र गंगा, जटा गंगा, काली गंगा, राम गंगा आदि सभी जल धाराएँ यह पावन नाम जुड़ने से ही आज 'गंगा तुल्य' हैं।


'ग' शब्द का वैशिष्ठ्यः गंगा शब्द का प्रारम्भ 'ग' वर्ण से होता है। 


जन-जीवन में गंगा


हजारों वर्षों की परम्परा ने गंगा को तीर्थचेतना का प्रतीक बना दिया है। जो नगर और गांव गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनके लिए तो यह जीवन-प्राण है ही, जो गंगा से हजारों मील दूर हैं, उनके मन और प्राणों में भी गंगा रची-बसी हई है। गंगा उनकी सांस्कृतिक धड़कन में गूंजती है। गंगा स्नान से भारतीय जनमानस की तीर्थचेतना संतुष्ट होती है। बिना गंगास्नान किये तीर्थों की यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता, ऐसी लोक-मान्यता है।


सर्वाधिक पवित्र गंगा जल


अमृतं जाह्नवीतोमृतं स्वर्णमुच्यते।


अमृतं गोभवंचाज्यममृतं सोम एव च।।


गंगा जल अन्य जल की अपेक्षा अधिक पवित्र और अमृततुल्य माना जाता है। गंगा जल अनेक व्याधियों का नाश करने वाला भी होता है।


गांगम् वारि मनोहारि, मुरारि चरणच्युतम् .


त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम्(गंगाष्टकम् 7) - महर्षि वाल्मीकि


जो श्री मुरारि के चरणों से उत्पन्न हुआ है, श्रीशंकर जी की जटाओं में विराजमान तथा सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला है, वह मनोहर गंगा जल मुझे पवित्र करे।


स्रोत - उतराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री व मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा रचित 'विश्व धरोहर गंगा'