गंगा : सांस्कृतिक संजीवनी

||गंगा : सांस्कृतिक संजीवनी||


सहस्राब्दियों से गंगा देश की संस्कृति का प्रतीक रही है। इसने भारत देश को पहचान भी दी है औरगरिमा भी। इस नदी ने करोड़ों भारतीयों को देवी के रूप में, गंगामैया के रूप में, तीर्थों की जननी के रूप में जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी उपस्थिति से उपकृत किया है। यह नदी वैज्ञानिक, आर्थिक, धर्मिक और भौगोलिक दृष्टि से अतुलनीय है।


भागीरथी नदी


पौराणिक कथानुसार, सूर्यवंशी राजा सगर के द्वारा एक बार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया गया था। इस यज्ञ में उनके चौसठ हजार पुत्रों द्वारा भ्रमवश तपस्या में लीन महर्षि कपिल को अपमानित किया गया। तपस्या में बाधा डालने तथा अपशब्दों का प्रयोग करने पर क्रोधवश कपिल मुनि ने राजा सगर के चौसठ हजार पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। शाप के कारण इन्हें मोक्ष प्राप्त न हो सकाआगे चलकर इसी वंश की चालीसवीं पीढ़ी के राजा दलीप का पुत्र भगीरथ हुआ। भगीरथ को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके चौसठ हजार पुरखों की राख और हड्डियाँ अभी तक कपिल मुनि की कुटिया के समीप ढेर स्वरूप हैं। उनकी आत्मा मोक्ष प्राप्ति हेतु छटपटा रही हैं, तो उन्होंने अपने इन पितरों के उद्धार हेतु प्रयत्न करने की ठानी।


हिमालय में पहुंचकर राजा भगीरथ ने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की, ताकि गंगा को स्वर्ग से लाकर अपने पुरखों का उद्धार किया जा सकेभगीरथ की कठोर तपस्या पर ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर स्वर्गलोक में श्री विष्णु के चरणों में विराजमान गंगा को मृत्यु लोक में भेजने हेतु स्वीकृति तो दे दी, किन्तु एक यक्ष प्रश्न भी सामने रख दिया कि गंगा की तीव्र प्रवाही शक्ति को पृथ्वी पर कौन संभाल पायेगा? राजा भगीरथ ने ब्रह्मा जी से ही इस समस्या का समाधान करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने शिव को इस कार्य हेतु उपयुक्त बताया। उन्होंने कहा कि यदि तुम शिव जी को प्रसन्न कर दो तो वे अपनी जटाओं में गंगा को पृथ्वी पर आने से पहले सँभाल लेंगे। राजा भगीरथ ने पुनः हिमालय में भगवान शिव की कठोर तपस्या करके शिव को इस कार्य हेतु मना लिया। गंगा स्वर्ग से अवतरित होकर प्रचण्ड वेग से शिव की जटाओं में समाहित हो गई। भगवान शिव ने अपनी जटा की एक लट खोलकर गंगा की एक धारा को पृथ्वी लोक के लिए मुक्त कर दिया।


गंगा की यह मुक्त धारा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलीजहाँ-जहाँ राजा भगीरथ जाते गंगा उन्हीं के पीछे चलती रही। तभी से गंगा का नाम भागीरथी पड़ा। गंगा, हरिद्वार कनखल पहुंचकर कपिल मुनि के श्राप से ढेर हुए चौसठ हजार पुरखों की राख को अपने में समाहित करती हुई गंगा सागर में विलीन हो गई। राजा भगीरथ के इस अथक प्रयास के कारण ही उनके पुरखों को इस मृत्युलोक से मोक्ष प्राप्त हुआ। इसलिए आज असंभव कार्य को संभव कर दिखाने को 'भगीरथ प्रयत्न' मुहावरे के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। गंगा द्वारा राजा सगर के चौसठ हजार पुत्रों को मुक्ति तथा मोक्ष प्रदान करने के निमित्त ही गंगा 'मोक्षदायिनी' कहलाई।


गंगा पृथ्वी पर केवल भगीरथ के पुरखों को ही मोक्ष प्रदान करने नहीं आई, बल्कि उसके अमृत स्वरूप जल ने इस पृथ्वी को सुजला-सुफला तथा शस्य-श्यामला बना दिया। जीवनदायिनी गंगा को पूजनीय तथा माँ का दर्जा प्राप्त हुआआज भी सूर्यवंश के प्रतीक सूर्य को गंगा जल अर्पण करने की परम्परा है। 'तेरा तुझको अर्पण' का भाव लिये करोड़ों लोगों की श्रद्धा गंगा के पवित्र जल तथा जीवनदायिनी स्वरूप को शत्-शत् नमन करती है।


गंगा का उद्गम गोमुख माना जाता है। गोमुख मे गंगोत्तरी से उन्नीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गंगोत्तरी नाम के विश्लेषण करने पर गंगा और उतरी का भाव परिलक्षित होता हैअर्थात् गंगा का पृथ्वी पर उतरना। गंगोत्तरी के समीप ही सूर्यकुण्ड में वास्तविक गंगा का अवतरण बताया गया है। सूर्य, विष्णु का प्रतीक है। विष्णु के चरणों में रहने वाली गंगा के पृथ्वी पर पदार्पण से पहले शिव की जटाओं में समा जाना हिमालय में हिम का प्रतीक माना जा सकता हैहिमालय शिव की जटाएँ हैं। शिव द्वारा अपनी जटाओं की एक लट के खोलने से गंगा धरती पर तेज धार के रूप में गिरी थी। यही धार सूर्यकुण्ड में गिरीयही स्थान गंगोत्तरी है। सूर्यकुण्ड के समीप पत्थर पर किसी भारी प्रहार के द्वारा बने निशान प्रतीत होते हैं। जल-प्रपात की गम्भीर ध्वनि इस स्थान को प्रमाणित करती है।


सदियों से पृथ्वी के प्राकृतिक स्वभाव में आ रहे बदलावों तथा जलवायु परिवर्तन की ही परिणति रही होगी कि गंगोत्तरी से गोमुख ग्लेशियर धीरे-धीरे खिसकता हुआ वर्तमान स्थान तक पहुँच गया हैगंगोत्तरी तथा गोमुख हिमनद की झील में प्रमाणिक अन्तर इसके पीछे सिकुड़ने का संकेत दे रहे हैं।


गोमुख समुद्रतल से 3940 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। यह चौखम्भा हिम-पर्वत के पूर्वी ढाल पर पसरा हुआ हिमनद है, जिसके ऊपर मीलों तक हिम शिखरों की श्रृंखला फैली हुई है। इस हिमनद का विस्तार लगभग 25 किमी० लम्बाई व 2 किमी० चौड़ाई तक हैयह हिमनद अन्य हिमनदों से भी जुड़ा है जिन्हें पर्वतारोही और भूगोलविद् रक्तवर्ण, श्वेतवर्ण, नीलाम्बर, पीताम्बर और चतुरंगी नाम से पुकारते हैं।


गोमुख के आगे नन्दनवन, तपोवन क्षेत्र के सौन्दर्य को देखकर कौन अभिभूत नहीं होगा। परन्तु इस क्षेत्र की नैसर्गिक सुन्दरता को देखने के लिए साहसी पर्यटक बनना पड़गादुर्गम मार्ग लेकिन प्रकृति का चमत्कारिक रूप पर्यटका तथा पर्वतारोहियों को मंत्रमुग्ध कर देता है।


गंगोत्तरी से देवप्रयाग तक भागीरथी का कुल प्रवाह मार्ग 205 किमी० है। इसमें वह गंगोतरी से सुक्खी तक के प्रारम्भिक माग = पहले पश्चिम दिशा में बहती है। इसके बाद सूची में लेकर माला-चट्टी के निकट भटवाड़ी तक दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती हैइसके बाद माला से पुनः पश्चिम दिशा का माग ग्रहण कर नाकुरी पहुंचती है। नाकुरी से नदी का प्रवाह पुन: दक्षिण दिशा की ओर हो जाता है। तत्पश्चात देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्द का संगम होता है।


गंगोत्तरी से देवप्रयाग तक भागीरथी नदी कई मनमोहक घाटियों में प्रवाहित होती है। भागीरथी की यह धारा भैरोघाटो, लंका व हर्षिल जैसे नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण क्षेत्र में मन्द गति से बहती है। यहा भागीरथी नदी की दृश्यावली ऐसा आभास कराती है कि मानो वह हिमशिखरों के तीव्र प्रवाह से उतरने के बाद सुस्ता रही हो।


भागीरथी नदी के तट पर उत्तरकाशी एक प्रमुख सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगर के रूप में विकसित है। उत्तरकाशी को विश्वनाथ -काशी के समान महत्व प्राप्त है, जो उत्तर को काशी के रूप में जानी जाती है। स्कंदपुराण में वर्णन है कि किसी समय काशी (वाराणसी) को शाप मिला कि कलियुग में वह पवित्रता नहीं बनाये रख सकेगीइस शाप से ऋषि-मुनि व्यथित हो गएतब वे शिव की शरण में गएशिव ने कहा कि कलियुग में मेरा निवास हिमालय क्षेत्र होगा। वहाँ भी ऐसी ही काशी होगी। एक अन्य लोककथा के अनुसार गंगोत्तरी मार्ग के निकट लैणी नामक पहाड़ के टूट जाने पर नदी का प्रवाह रुक गयाइस कारण नदी उत्तरवाहिनी हो गई, इसलिए इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगाऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर गुप्त काल में वर्णित बाडाहाट ही वर्तमान उत्तरकाशी है।


उत्तरकाशी में विश्वनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर हैइस मन्दिर के प्रांगण में 7 मीटर लम्बा त्रिशूल गढ़ा हुआ हैइस पर प्राचीन लेख अंकित है। मान्यता है कि अशोकचल ने अपनी विजय पताका उत्तरकाशी में फहराई थी। वर्तमान में उत्तरकाशी इस क्षेत्र का एक प्रमुख व्यापारिक नगर भी है। उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान महत्वपूर्ण संस्था हैं जिसकी स्थापना 15 नवम्बर 1965 को हुई थीयहाँ से प्रशिक्षित कई प्रतिभाओं ने पूरी दुनिया में पर्वतारोहण के क्षेत्र में अपना परचम फहराया है। उत्तरकाशी के बाद ऐतिहासिक नगर टिहरी में भागीरथी नदी का भिलंगना तथा लुप्तप्रायः हो चुकी घुस्तु नदी के साथ महत्वपूर्ण संगम था, जिसे वर्तमान में टिहरी झील के रूप में देखा जा सकता है।


भागीरथी नदी में स्थान-स्थान पर अनेक जलधाराओं का मिलन होता है। देवगंगा और जलन्धरी गाड़, हर्षिल में 12 किमी० प्रवाह पथ के बाद विल्सन बंगले (वर्तमान में वन विभाग के विश्राम गृह) के निकट भागीरथी में मिलती है। विष्णुगंगा और हत्याहरिणी नाम की जलधारायें भी लगभग 13 किमी० प्रवाह के बाद हर्षिल के समीप भागीरथी में विलीन हो जाती हैंझालागाड 7 किमी० बहने के बाद झाला बगोड़ी के बीच में, हनुमान गंगा 18 किमी० बहने के बाद डबराणी के निकट, पापड़ी गाड़ भटवाड़ी के पास, डोडीताल से निकलकर आने वाली असीगंगा गंगोत्तरी में तथा वरुण गंगा जो कुआकांठा से निकलती है 16 किमी० बहने के बाद बड़ेथी के निकट भागीरथी में मिल जाती हैइसी प्रकार नाकुरी गाड़ राड़ी फलास डांडे से निकल कर 11 किमी० बहने के बाद नाकुरी में मिलती है। धरासू गाड़ जो राड़ीटिब्बा से आती है, धरासू तक 25 किमी० बहने के बाद भागीरथी में मिलती है। अनेक छोटी-छोटी जल धारायें जो पहले भागीरथी में समाहित होती थीं, अब टिहरी बांध के विशाल जलाशय में विलुप्त हो गई हैं किन्तु ऊपरी क्षेत्र में उनके नगुण गाड़, भल्डियाना गाड़ और स्यांसु गाड़ नाम आज भी सुरक्षित हैं।


टिहरी-देवप्रयाग के मध्य भागीरथी के दायें तट पर मिलने वाली जलधाराओं में प्रमुख हैं- क्यारीगाड़ जो लोहिताल डांडा से निकल कर लगभग 21 किमी० प्रवाह मार्ग लेकर भागीरथी में धर्मघाट के पास मिलती है। द्वोरया गाड़, भमोऱ्या पानी से निकल कर 6 किमी० प्रवाह पथ के बाद मासों में भागीरथी में मिलती है। जौरासी गाड घण्टाकर्ण टिब्बा से निकलकर 13 किमी० प्रवाह के बाद जौरासी में मिलती है, धान्यूल कोटगाड़ 22 किमी० प्रवाह पथ के बाद पेदार्स में भागीरथी में मिलती है, खोलागाड़ का भी घण्टाकर्ण टिब्बा से 21 किमी० प्रवाह पथ बनाने के बाद कोटेश्वर में भागीरथी से संगम होता है। धौलधार गाड़ दशरथ टिब्बा से निकल कर भागीरथी में मिलती है। शान्ता नदी का भी दशरथ टिब्बा से निकलकर देवप्रयाग के समीप भागीरथी से संगम होता है।


केदारकांठा व श्रीकण्ठ पर्वत से निकल कर भागीरथी में जल की मात्रा बढ़ाने वाली नदियां केदारगंगा, कीरगाड़ और हीरागाड़ नाम से जानी जाती हैं। आगे कुश कल्याणी से आने वाली पिलंग नदी 15 किमी० प्रवाह पथ के बाद भेला टिपरी में भागीरथी से मिलती है। वेलख टिब्बा से सौरागाड़ कुमाल्टी के सामने और इन्द्रावती नाल्डकठूड़ में भागीरथी में मिलती है।