||एक पिता का प्यार||
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बाबा कहूँ, पापा कहूँ,अब्बा कहूँ चाहे डैडी ।कुछ शब्दों के एक रूप से, ज़िन्दगी मेरी जुड़ गई।।घर हो ना हो रहने को मैरे, हाथ इनका सर पे हो।ओढ़ने को भले ना हो चादर, मुझे बांह इनकी मिल गई।।कुछ शब्दों के एक रूप से , ज़िन्दगी मेरी जुड़ गई।।दुनियां मुझसे कहती है, ईश्वर कि मैं इक देन हूँ।देखा ना मैंने उस प्रभु को, कैसे कहूँ मैं उनकी हूँ।।मुझे जन्मा है एक नारी ने, जिसे कहती हूँ मैं माँ मेरी।संवारा है उस मनु ने, जिन्हें लफ्ज़ कहती पिता मैरे।।दो रूह ईक संयुग बना है, घर मैरा मंदिर बना है।ईश्वर दिखे या ना दिखे, मुझे शक्ति मैरी मिल गई।दो रूप के इस प्यार में , मेरी ज़िन्दगीही संवर गई।।कुछ शब्दों के एक रूप से , ज़िन्दगी मेरी जुड़ गई।।याद आती है मुझे अब, बापू कि वो टॉफ़ी की पुड़िया ।हल चलाते वक़्त बहती, माथे पे उनकी लाखों नदियाँ।।मेहनत उनको सैनिक बनाया, माँ बेटी का रक्षक बनाया।ज़िन्दगी के कर्मों का, उनको ही प्रहरी बनाया।।अश्व बनकर पीठ पर, मुझको घुमाया चारों दिशा।ऐसे उछली ऐसे झूमीं, जैसे कलि कोई खिल गई ।।दुलार के इस छांव में , मैं हंसते 2 दो गई।कुछ शब्दों के एक रूप से , ज़िन्दगी मेरी जुड़ गई।।