आरजू नहीं

 

आरजू नहीं

 

नींद चैन की, सदा के लिये.........

जो हो जाये मय्यसर,

सुपुर्द-ए-खाक की भी, अब जरूरत नहीं॥

इन्सान ही काट-बाट रहा,

इन्सान को ,

अब तो दो गज ज़मीं की भी आरजू नहीं॥

 

यही पर सम्मान भी देखा, यहीं पर दुत्कार भी,

जहाँ पर खुद की जीत सुनिश्चित,

पायी सबसे ज्यादा हार वहीँ ॥

अपनो ने ही हराया, झुकाया मुझको,

गैर दुश्मनों की तो, जरुरत ही नही॥

 

कुछ का नेह मिला, 

कुछ का प्यार, सानिध्य भी मिला,

कैसे भूल जाऊँ,उनके अहसानों को,

इतना तो मै भी कृतघ्न नही।।।

 


नींद चैन की, सदा के लिये.........

जो हो जाये मय्यसर,

सुपुर्द-ए-खाक की भी, अब जरूरत नहीं॥

इन्सान ही काट-बाट रहा,

इन्सान को ,

अब तो दो गज ज़मीं की भी आरजू नहीं॥

 


इसी जीवन में, हार भी देखी,

उत्सव जीत का भी, मनाया यहीं,

सफलता बेशुमार मिली यहां,असफलता  भी,मिली यहीं

,देख लिये सतरंगी रँग, जिन्दगी के यहाँ,

हर रँग देख लिये जाये, अब ये जरूरी तो नही,,

 


नींद चैन की, सदा के लिये.........

जो हो जाये मय्यसर,

सुपुर्द-ए-खाक की भी, अब जरूरत नहीं॥

इन्सान ही काट-बाट रहा,

इन्सान को ,

अब तो दो गज ज़मीं की भी आरजू नहीं॥

 


खत्म सी हो रही है,  जीजिविषा,

किसी से कुछ कहना सुनना,

बाकी तो रहा ही नहीं।


 



नींद चैन की, सदा के लिये.........

जो हो जाये मय्यसर,

सुपुर्द-ए-खाक की भी, अब जरूरत नहीं॥

इन्सान ही काट-बाट रहा,

इन्सान को ,

अब तो दो गज ज़मीं की भी आरजू नहीं॥

 


"ऐ चांद !"
(भाग-2)


तुम्हीं बताओ, 
ऐ चांद !
अपने इन जज्बातों को,
भरी महफ़िल में,
कैसे सुनाऊँ,
गीत जो गाया था,
मिलकर कभी,
उसे भला अकेले ही,
अब कैसे गुनगुनाऊं।।



वो सपने वो वादे,
वो ताउम्र साथ रहने के ख्वाब, 
सब बह गये अब,
वक्त की आपदा में,
उन जख्मों पर,
कैसे मरहम लगाऊं,
तुम्हीं बताओ,
ऐ चांद !!
उस अधूरे इश्क़ की फ़रियाद लेकर,
मैं कहाँ जाऊँ।।


प्रेमांकुर जो फूटा था,
दो धड़कते दिलो में कभी,
वो विशाल दरख्त हो चुका अब,
शीतल सी,
छांव से उसकी ,
अब बाहर मैं कैसे आऊँ,
तुम्ही बताओ,
ऐ चांद !!
ये बरबाद दिल लेकर,
मैं अब कहाँ जाऊँ ।।


रूहानी से इस रिश्ते को खोकर,
फिर से घरोंदा,
कैसे सजाऊं।
हार के अपनी दुनियां सारी,
जश्न जीत का,
कैसे मनाऊँ ।।
तुम्ही बताओ
ऐ चांद !!
ये बरबाद दिल लेकर,
मैं अब कहाँ जाऊँ ।।


सलीके से पढ़ा नही,
मुझको,
जब तुमने कभी,
तो हाल-ऐ-दिल,
ये किसको सुनाऊँ,
मेरे दिल के जहान में,
जब तुम ही नहीं हो तो,
यादों की बारातों को क्यूंकर सजाऊं।
तुम्ही बताओ,
ऐ चांद !
इन हालातों में,
मैं भला कैसे मुस्कुराऊं,


तुम्ही बताओ, 
ऐ चांद !
अपने इन जज्बातों को,
भरी महफ़िल में,
कैसे सुनाऊँ,
गीत जो गाया था,
मिलकर कभी,
उसे भला अकेले ही,
अब कैसे गुनगुनाऊं।।


(संजय मोहन जायसवाल) कवि पुलिस डिपार्टमेन्ट में कार्यरत हैं। 


नोट-ये कविता काॅपीराइट के अन्तर्गत आती है। प्रकाशन से पूर्व लेखक की संस्तुती अनिवार्य है।